Monday, November 30, 2009

थोड़ा डिपलोमेटिक हो जाएँ

आज ऐसा लगा जैसे कोई छुट गया,
हाथ का खिलौना,
हाथ में ही टुट गया,
चले थे नई इबारत लिखने,लेकिन
दुनिया बडी बेगैरत निकली,
टाँग खिंचकर नीचे गिरा दिया,
हाथ बढाया था कि,
कोई शायद पकडेगा,
पकड़ा तो था मगर काट दिया गया,
हाथ कटते भी दुख नही हुआ,
सोचा कोई सहारा बनेगा,
लेकिन जिसे साथी बनाया,
वही धोखेबाज़ निकला
अब समझ आया कि,
साहब थोडा डिपलोमेटिक होते,
तो ज्यादा तरक्की कर पाते,
कटा हाथ लिए नही घुमते,
हाथ बचाने का फन सीख जाते
कोशिश करुँगा थोडा,
डिपलोमेटिक हो जाऊँ,
क्योंकि मैं भी
बड़ा आदमी बनना चाहता हुँ।
आशा है बन पाऊँ...

Saturday, November 28, 2009

कौन हो तुम?

हम तो चले थे बडे इतराके
लेकिन हमें क्या पता था
इस दुनिया में सभी,
अपनी ऐंठ में जीते है,
माँ के कहने पर,
बचकर तो चले थे इस दलदल से,
मगर इसी में देखा एक खिला कमल,
सोचा पा लिया जाए उसे,
मगर वो निकला,कबीर की
माया ठगनी,
सोचा बदला जाए,इस दुनिया को,
लेकिन आज मैं पूछता हुँ,
कौन हो तुम,क्या नाम है तुम्हारा,
क्या हम पहले मिले हैं कहीं,
अब समझ आ गया,
यही दुनिया का सच है.